Sunday, January 1, 2012


हो जा अजर ! हो जा अमर !!
जो मोक्ष है तू चाहता, विष सम विषय तज तात रे।
आर्जव क्षमा संतोष शम दम, पी सुधा दिन रात रे॥
संसार जलती आग है, इस आग से झट भाग कर।
आ शांत शीतल देश में, हो जा अजर ! हो जा अमर !!॥1

पृथिवी नहीं जल भी नहीं, नहीं अग्नि तू नहीं है पवन।
आकाश भी तू है नहीं, तू नित्य है चैतन्यघन॥
इन पाँचों का साक्षी सदा, निर्लेप है तू सर्वपर।
निजरूप को पहिचानकर, हो जा अजर ! हो जा अमर!!॥2
चैतन्य को कर भिन्न तन से, शांति सम्यक् पायेगा।
होगा तुरंत ही तू सुखी, संसार से छुट जायेगा॥
आश्रम तथा वर्णादि का, किञ्चित् न तू अभिमान कर।
सम्बन्ध तज दे देह से, हो जा अजर ! हो जा अमर!!॥3
नहीं धर्म है न अधर्म तुझमें ! सुख-दुःख का भी लेश न।
हैं ये सभी अज्ञान में, कर्त्तापना भोक्तापना॥
तू एक दृष्टा सर्व का, इस दृश्य से है दूरतर।
पहिचान अपने आपको, हो जा अजर ! हो जा अमर !!॥4
कर्त्तृत्व के अभिमान काले, सर्प से है तू डँसा।
नहीं जानता है आपको, भव पाश में इससे फँसा॥
कर्त्ता न तू तिहुँ काल में, श्रद्धा सुधा का पान कर।
पीकर उसे हो सुखी, हो जा अजर ! हो जा अमर !!॥5
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